Friday, January 8, 2010

वीरानिया

दोपहरी मैं जब रेत तपती है, धूप चटकती है !
आके जुबा पे बात रुकती है, आवाज़ भटकती है!

लाश बनकर भी जीना पड़ता है इंसानो को!
जब तक मौत नही आती सांस खटकती है!

जिंदगी के रेगिस्तान मे, न हो प्यार की बारिश अगर,
मौसम की बारिश जब बरसती है, आँख बरसती है!!

कुछ लोगो को तो जीना भी रास नही आता!
घर नही होता, जेब नही होती,भूख तो लगती है मरते दम तक!
जब नही होती एक तमन्ना पूरी,कयामत तक कहाँ-कहाँ, कोई रूह भटकती है!
किनारे पर आकर, जब डूब जाती है किस्ती,एक शक्श के बिना ये दुनिया वीरान सी लगती है!!

Another tribute to my mother!!


Regards,
Rajender Chauhan
http://rajenderblog.blogspot.com